Hot hindi Story : युवक का व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली था। चौड़ी छाती, भुजाएं गठी हुई, आंखों में गजब का यौन-आमंत्रण था। पुरुषोचित सौंदर्य से वह पूरी तरह लदा हुआ था। मैं उसके बारे में ही सोचती हुई सो गई। रात के कोई दो बजे बाहर घूम रही पुलिस के जूतों को आवाज सुनकर मेरी आंख अचानक ही खुल गई। मैंने सोचा, ‘जब जाग गई हूँ, तो क्यों न पेशाब कर आऊं।’
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मेरा अंग-अंग भय के मारे कांप गया। मैंने नाइट बल्ब जला दिया। युवक भी जाग गया था। मैं पलंग से उठने लगी तो उसने कहा, ‘आप दरवाजा खोलने जा रही है? दरवाजा भूलकर भी मत खोलिएगा। पुलिस गश्त लगाकर चली गई है और बाहर हिन्दू-मुस्लिम आपस में कट-मर रहे हैं। मैं खिड़की से सब देख रहा हूं।’
इतने में दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैं डर के मारे दोहरी हो गई। दरवाजे पर हथेलियों की थपथपाहट बढ़ती ही जा रही थी। तभी कुछ लोग मेरा दरवाजा तोड़ने लगे। युवक सोफे से उठकर दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया और चितित होते हुए बोला, ‘ये लोग काफी संख्या में हैं। दरवाजा तोड़ सकते हैं। लेकिन डरने की कोई बात नहीं है। कोई हथियार है तो ले आईए।’
मैं दौडी-दौड़ी बरामदे में आई और बांस की दो मजबूत बल्लियां लेकर कमरे में आ गई। युवक ने उन बल्लियों को दरवाजे से लगाकर कहा. ‘बल्लियां काफी मजबत हैं। मैं इन्हें मजबती से पकडकर बैठ जाता ह।’ यवक में अदम्य साहस और जोश था। दरवाजा टट गया, लेकिन उसने बल्लियों को नहीं छोडा पर भीड तो भीड होती है। बाहर से जोरदार धक्का लगते ही एक बल्ली उसके हाथ से छूटकर गिर गई। युवक पसीने-पसीने हो गया।
इसी बीच पुलिस आ गई तो दंगाईयों की भीड़ वहां से भाग गई। हमारी जान में जान आई। युवक बोला, ‘शायद हम मरते-मरते बच गए। आप पलंग दरवाजे से सटाकर लगा लीजिए। पलंग का सहारा पाकर दरवाजा गिरेगा नहीं।’ मैंने पलंग खींचकर दरवाजे से सटा दिया। फिर युवक से बोली, ‘ये हिन्दू-मुस्लिम आपस में लड़ रहे हैं। एक-दूसरे को जान से मार रहे हैं। क्या यह सही है? एक मस्जिद ही गिरी है न, आपस का प्यार तो नहीं गिरा है? चन्द धर्माध हिन्दुओं ने मस्जिद को गिराया और ये मुसलमान पूरे हिन्दू समाज को दुश्मन मान बैठे हैं। क्या ये सभी के सभी कट्टर और धर्माध नहीं है?
‘अब बहस करने से क्या लाभ? किसी भी परिवार, समाज या देश में कुछ ही लोग गलत होते हैं, लेकिन ऐसी परिस्थितियों में उनकी संख्या और ताकत बढ़ जाती है। उनको मानने वाले वे लोग भी हो जाते हैं, जो धर्माध नहीं होते हैं। आप सो जाइए। पुलिस बाहर गली में खड़ी है। वह हमारी हिफाजत कर रही है।’ युवक यह कहकर सो गया।
मैंने नाइट बल्ब बुझा दिया और सोने की कोशिश करने लगी, तभी याद आया ‘मुझे तो पेशाब करने जाना है।’ मैं यह सोचते ही पलंग से उठ खड़ी हुई। ऐसे हालातों में दिमाग कहां काम करता है। मैं उठते समय बत्ती जलाना भूल गई। अंध रे में जैसे ही दो-तीन कदम बढ़ी सोफे से पांव जा टकराया और मैं धड़ाम से युवक के ऊपर जा गिरी। मेरे पांव में काफी जोर से ठेस लग गई थी। मैं चाहकर भी उठन सकी। युवक हड़बड़ा कर उठ बैठा और घबराई हुई आवाज में बोला, ‘यह क्या कर रही हैं। ‘आप बत्ती जला ली होती। शायद आपको चोट लग गई?
‘हां मुझे जरा सहारा दीजिए। मैं पेशाब करने जा रही थी, तो सोफे से पांव टकरा गया और आप पर गिर पड़ी।’ मेरे यह कहते ही उसने मुझे अपनी बांहों में उठाकर पलंग पर सुला दिया। फिर उसने बत्ती जला दी, ‘आप उठना चाहिए था।’ यह कहकर वह मेरे पास ही बैठ गया।
अब मैं उसे ही एकटक देख रही थी। उसकी मर्दानी बाहों का पहला पहला स्पर्श सचमुच ही मुझे आत्म विभोर कर गया था। मैं कैसे उस आनंद और स्पर्श का वर्णन करूं, शब्द ही नहीं मिल रहे। माधुरी की बात अब मेरी समझ में आ गई थी। मेरे जिन-जिन अंगों को युवक ने छुआ था, उन-उन अंगों पर बार-बार मैं अपनी उंगलियाँ ले जाकर फिरा रही थी। मुझे इससे आत्म संतुष्टि मिल रही थी। तभी युवक ने कहा-‘चोट कहीं जोर से नहीं लगी?
मैं देख रही थी, वह भी मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश में था। मैं उसके नजदीक आती हई बोली, ‘जब सोफे से पांव टकराया है तो चोट तो लगनी ही है!
‘मैं शार्मिदा हूँ, मेरे कारण चोट लग गई। क्या आप अकेली ही रहती हैं? आपके मम्मी-पापा आपके साथ नहीं रहते हैं?’ युवक कुछ बनते हुए बोला।
मैं समझ गई, जो पुरुष कुछ देर पहले ‘विश्वास’ करने की बात कर रहा था, वह कितना झूठा है। उसकी निगाह अब सिर्फ मेरी देह पर ही है। पुरुष इस मामले में कभी विश्वसनीय हो ही नहीं सकता। झूठी तो में भी थी। अकेली होने का रोना रो रही थी और अब उसकी मर्दानी बाहों के स्पर्श के लिए लालायित थी। हम दोनों ही एक इंसान थे और इंसान कभी एक- सा नहीं रहता। वह पल-पल बदलता रहता है। पानी की तरह, जैसा माहौल देखता है, वैसा ही स्वयं को बना लेता है।
मैं ज्यादा देर तक अपने आप पर काबू न रख सकी और बड़ी ही बेशर्मी से उसके कंधे पर हाथ रख दिया। वह आश्चर्य से कुछ पल तक मुझे देखता रहा, फिर अपना दायां हाथ मेरी कमर पर रखकर अपलक मेरी आँखों में देखने लगा। उसकी आंखों में जाने ऐसा क्या था, कि मैं देखते ही देखते सम्मोहित-सी हो गई और थोड़ा आगे की ओर सरक गई।
उसने कमर पर से हाथ खींच कर मेरी पीठ पर रख दिया और धीरे-धीरे मेरी पीठ को सहलाने लगा। मझे उसके हाथों के स्पर्श मात्र से ही जो सख मिल रहा था. वैसा सख जीवन में नहीं मिला था। सभी सखों से अलग और विविधता लिए हए यह सुख था। इस सुख में क्या नहीं था? रंग, रास, मिठास, गंध, स्वाद सभी कुछ तो था। मुझे यह बात समझते देर न लगी, कि अगर बदरंग जीवन को रंगीन किसी से बनाया जा सकता है, तो वह स्त्री-पुरुष की बांहों का स्पर्श ही हो सकता है।’
इतने में ही युवक ने मुझे लिटा दिया। मैंने कोई विरोध नहीं किया। मैं कुछ बोलती या समझती, इससे पहले वह मेरे यौनांगों को बारी-बारी से चूमने लगा। फिर उसने मेरी पलकों पर अपने न गर्म होंठ रख दिए। मैं सीत्कार उठी और पलंग से उछल कर सोफे पर आ गई। युवक आंखें बंद कर हंसने लगा। मैंने आंखें नचाते हुए कहा, ‘पकड़ो तो जानूं।’
‘मुझे ललकार रही हो?’ युवक यह कहते हुए उठा और पलक झपकते ही पलंग से सोफे पर आ गया। मैं वहां से उठकर ज्यों ही पलंग पर जाने के लिए उठी, उसने मुझे अपनी बाहों में दबोच लिया, ‘लो अब पकड़ लिया न?’
मैं खिल-खिलाकर हंस पड़ी। वह सैक्स कला में निपुण था। स्त्री को कैसे सहवास से पहले ही पिघला कर मोम बनाया जा सकता है, उसको बताने की जरूरत नहीं थी। उसने एक-एक करके मेरे सारे अंगों को चूम लिया था। मेरे तलबों तक को भी उसने चाटा था। मैंने पहली बार ही यह जाना था, कि कोई पुरुष किसी स्त्री के तलवों को चाटता-चूमता है, तो वह कितनी उत्तेजित हो उठती है।
वह केवल चूमने-चटाने में ही निपुण नहीं था, बल्कि सहवास-कला में भी प्रवीण था। जब वह मुझे अपनी बांहों का सहारा देकर मुझसे खेलने लगा तो मैं अनायास ही उसके होंठ अपने होठों में दबा कर चूसने लगी। मैं अपने आप में थी ही नहीं। मुझे तो उसके होंठ ऐसे लग रहे थे, जैसे मिसरी की डली हों। उससे भी कहीं अधिक स्वादिष्ट और मीठे।
अब तक मैंने जो सहवास देखे थे, वे तो कुछ भी नहीं थे। बस आधे-अधूरे ही थे।
इसी बीच युवक ने एक दबी आवाज में सीत्कार ली और अपना सिर मेरे सीने पर रखकर दम लेने लगा। मैं पूरी तरह से संतुष्ट हो गई थी। अब रात भी कोई खास नहीं थी। युवक सोफे पर जाकर लेट गया। मैंने सैक्स को जिस रूप, रंग और रस में भोगा था, वह अब ऐसा था, ‘हरी तीखी मिर्च तो सभी ने देखी होगी। उसको दांत से काटने के बाद आंखों में आंसू आ जाते हैं।
जीभ में जलन सी होने लगती है। मुंह में पानी आ जाता है और फिर शुरू होता है ‘सी-सी’ करने का सिलासिला। सैक्स मिर्च की तरह तीखा तो नहीं होता है, लेकिन चरपरी मिर्च जैसी ही तासीर उसकी होती है। मिर्च-सा चरपरा किन्तु मीठा। मैं मन-ही-मन आत्म विभोर हो रही थी।
सुबह मेरी आंख खुली तो वह जा चुका था। मुझे उस युवक पर बड़ा ही गुस्सा आया, ‘वह कितना स्वार्थी था। बिना मिले ही चला गया। खैर उसे तो जाना हो था, वह एक पुरुष जो था। पुरुष किसी से प्यार थोड़े ही करते हैं। वैसे भी स्त्रियां भी कहां किसी से प्यार करती हैं। माधुरी किशोर से कहां प्यार करती है। ये स्त्री-पुरुष के रिश्ते शरीर से शुरू होकर शरीर पर ही खत्म हो जाते हैं। उस युवक को अपनी रात सुखद गुजारनी थी और मुझे भी मर्दानी बांहों के स्पर्श का स्वाद चखना था। आनंद लिया-दिया, बात खत्म।’
मेरा मनचला बिंदास मन इन झमेलों में कहां पड़ने वाला था। मैंने एक झटके में ही रात के मधुर क्षणों को झटक दिया और बाथरूम की ओर बढ़ गई। दूसरे दिन माहौल में काफी सुधार आ गया था। कयूं का असर कहीं भी नहीं था। लोग आ-जा रहे थे। सड़कों पर फिर से चहल-पहल शुरू हो गई थी। लेकिन मैं जाती भी तो कहां?, स्कूल आज भी बन्द था। मैं खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। दंगे के बाद की स्थिति कितनी भयावह और दयनीय हो गई थी। सड़कों और गलियों की दीवारों पर खून के धब्बे साफ दिखाई दे रहे थे। दंगाइयों ने अच्छी-खासी दुकानों को तोड़ दिया था। मलबा सड़कों पर बिखरा हुआ था। दुकानदार बाहर आंखों में सूनापन लिए हुए अपनी क्षत-विक्षत दुकानों को देख रहे थे। उनमें कुछ घायल भी थे। किसी ने सिर पर पट्टी बांध रखी थी, तो किसी ने हाथ-पांवों में…। यह तो खुदा का शुक्र ही था, कि हमारी कॉलोनी में मुस्लिम आबादी ज्यादा होते हुए भी अधिक खून-खराबा नहीं हुआ था। इसका एक कारण शायद यह भी था, कि हमारी कॉलोनी के मुस्लिम परिवार सुशिक्षित थे। शिक्षा धर्माधता का नाश करती है। कट्टरपंथी बनने से रोकती है, यह मेरी अपनी मौलिक सोच थी।
शायद उन्हें यह पता था, कि मस्जिद गिराने की उपज धर्माधता के हाथों ही हुआ है। मस्जिद को सारे हिन्दुओं ने मिलकर नहीं गिराया है, बल्कि चन्द धर्माधों ने गिराया है। इतने में मेरी नजर सामने सड़क पर चली गई। सफेद रंग की गाड़ी हवा से बात करती हुई इधर ही चली आ रही थी।
मैं समझ गई, यह मम्मी की गाड़ी है। इतनी तेज गति से गाड़ी वही चलाती है। देखते-ही-देखते मम्मी की गाड़ी मकान के गेट के सामने आ खडी हई। मम्मी ने आज अपने बालों का स्टाइल बदल रखा था। उसके होंठों पर लिपस्टिक भी कोई दूसरे ही शेड की थी। साड़ी भी उसके शरीर पर हल्के गुलाबी रंग की थी। मुझे यह समझते देर न लगी कि मम्मी के परम्परागत साज-श्रृंगार और पहनावे में बदलाव वेदान्त अंकल के कारण ही हुआ है।
मैं सहसा ही बुदबुदा पड़ी, ‘अपने मनपसंद साथी के मिल जाने पर व्यक्ति का जीवन कितना सार्थक हो जाता है। मम्मी का तो कायाकल्प ही हो गया है। पापा के लिए तो वह सजना-संवरना ही भूल गई थी।
तभी मुझे मम्मी के पैरों की आवाज सुनाई दे गई। वह बड़ी ही तेज गति से सीढ़ियां चढ़ रही थी। मैं दरवाजे में आकर खड़ी हो गई। मम्मी मेरे करीब आते ही बोल पड़ी- ‘बेटी, अकेली तुम घर पर थी, कोई दिक्कत तो नहीं हुई? मैं दंगे की वजह से नहीं आ सकी।’ मम्मी यह कहकर अपने कमरे में चली गई। मैंने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया।
मम्मी शायद थकी हुई थी। कपड़े चेंज किए बिना ही पलंग पर निढाल पड़ गई और देखते-ही-देखते खर्राटें भरने लगी। मम्मी के आने के बाद भी मैं इतने बड़े मकान में अकेली ही थी। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई कि. ‘स्त्री-परुष जब सिर्फ सैक्स के लिए ही जीने लगते हैं तो उनके लिए सारे रिश्ते गौण हो जाते हैं। वे कितने खुदगर्ज और अवसरवादी हो जाते हैं। उनका सोचने का दायरा कितना छोटा हो जाता है। मम्मी-पापा अपनी दुनिया में ही सिमट कर रह गए हैं। घर में एक युवा लड़की भी है, इसका एहसास तक भी उन्हें नहीं है।’ यह सोचते-सोचते अचानक ही मुझे ध्यान आया कि आज मुझे माधुरी के घर जाना है और मैं तैयार होने लगी।
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